भूमिका –
महान राजपूत राणा प्रताप ने मेवाड़ को मुग़लों से बचाने के लिए बहुत संघर्ष किये। इस संघर्ष की प्रक्रिया में वे और उनका परिवार बहुत ही कठिन समय से गुज़रा। कई दिनों तक वे जंगलों में छिपे रहे। उन्हीं दिनों जब राणा प्रताप के पास नन्हें से कुंवर अमर सिंह को खिलाने के लिए कुछ न था तो कुंवर को घास और जडों से बनी रोटी खानी पड़ रही थी, उस रोटी को भी एक जंगली बिल्ली छीन ले गयी। कुंवर अमर सिंह बिलख-बिलख कर रोने लगे। ये दृश्य देख कर एक पिता का हृदय टूट गया और उन्होंने अक़बर को आत्मसमर्पण करने के लिए पत्र लिख भेजा। अक़बर को ये पत्र पढ़ कर अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ फिर उन्होंने वो पत्र कवि पीथल को पढ़ने को कहा। पीथल, जो कि राणा प्रताप के संकल्प और सख्सियत के बड़े प्रशंशक थे, राणा के इस पतन को देख कर उनकी आँखे भीग गयीं। पत्र के उत्तर में पीथल ने राणा को कुछ पंक्तियां लिख भेजी, जिन्हें पढ़ कर राणा को अपना संकल्प याद आया और फिर से मुग़लों के साथ युद्ध की तैयारियों में जुट गए।
कविता –
अरे घास री रोटी ही‚ जद बन–बिलावड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमर्यो चीख पड़्यो‚ राणा रो सोयो दुःख जाग्यो।
नान्हों सो अमर्यो चीख पड़्यो‚ राणा रो सोयो दुःख जाग्यो।
हूँ लड़्यो घणो‚ हूँ सह्यो घणो‚ मेवाड़ी मान बचावण नै।
मैं पाछ नहीं राखी रण में‚ बैर्यां रो खून बहावण नै।
मैं पाछ नहीं राखी रण में‚ बैर्यां रो खून बहावण नै।
जब याद करूँ हल्दीघाटी‚ नैणां में रगत उतर आवै।
सुख–दुख रो साथी चेतकड़ो‚ सूती सी हूक जगा जावै।
सुख–दुख रो साथी चेतकड़ो‚ सूती सी हूक जगा जावै।
पण आज बिलखतो देखूँ हूँ‚ जद राजकंवर नै‚ रोटी नै।
तो क्षात्र धर्म नै भूलूँ हूँ‚ भूलूँ हिंदवाणी चोटी नै।
तो क्षात्र धर्म नै भूलूँ हूँ‚ भूलूँ हिंदवाणी चोटी नै।
आ सोच हुई दो टूक तड़क‚ राणा री भीम बजर छाती।
आँख्यां मैं आँसू भर बोल्यो‚ हूँ लिखस्यूँ अकबर नै पाती।
आँख्यां मैं आँसू भर बोल्यो‚ हूँ लिखस्यूँ अकबर नै पाती।
राणा रो कागद बाँच हुयो‚ अकबर रो सपनो–सो सांचो।
पण नैण कर्या बिसवास नहीं‚ जद् बाँच बाँच नै फिर बाँच्यो।
पण नैण कर्या बिसवास नहीं‚ जद् बाँच बाँच नै फिर बाँच्यो।
बस दूत इसारो पा भाज्यो‚ पीथल नै तुरत बुलावण नै।
किरणां रो पीथल आ पुग्यो‚ अकबर रो भरम मिटावण नै।
किरणां रो पीथल आ पुग्यो‚ अकबर रो भरम मिटावण नै।
“म्हें बांध लियो है पीथल! सुण‚ पिंजरा में जंगली सेर पकड़।
यो देख हाथ रो कागद है‚ तू देखां फिरसी कियां अकड़।
यो देख हाथ रो कागद है‚ तू देखां फिरसी कियां अकड़।
हूं आज पातस्या धरटी रो‚ मेवाड़ी पाग पगां में है।
अब बता मनै किण रजवट नै‚ रजपूती खून रगां में है”।
अब बता मनै किण रजवट नै‚ रजपूती खून रगां में है”।
जद पीथल कागद ले देखी‚ राणा री सागी सैनांणी।
नीचै सूं धरती खिसक गयी‚ आख्यों मैं भर आयो पाणी।
नीचै सूं धरती खिसक गयी‚ आख्यों मैं भर आयो पाणी।
पण फेर कही तत्काल संभल “आ बात सफा ही झूठी है।
राणा री पाग सदा ऊंची‚ राणा राी आन अटूटी है।
राणा री पाग सदा ऊंची‚ राणा राी आन अटूटी है।
“ज्यो हुकुम होय तो लिख पूछूँ, राणा नै कागद रै खातर।”
“लै पूछ भला ही पीथल! तू‚ आ बात सही” बोल्यो अकबर।
“लै पूछ भला ही पीथल! तू‚ आ बात सही” बोल्यो अकबर।
“म्हें आज सुणी है‚ नाहरियो, स्याला रै सागै सोवैलो।
म्हें आज सुणी है‚ सूरजड़ो‚ बादल री आंटा खोवैलो”
म्हें आज सुणी है‚ सूरजड़ो‚ बादल री आंटा खोवैलो”
पीथल रा आखर पढ़ता ही‚ राणा राी आँख्यां लाल हुई।
“धिक्कार मनै‚ हूँ कायर हूँ” नाहर री एक दकाल हुई।
“धिक्कार मनै‚ हूँ कायर हूँ” नाहर री एक दकाल हुई।
“हूँ भूख मरूं‚ हूँ प्यास मरूं‚ मेवाड़ धरा आजाद रहै।
हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ‚ पण मन में माँ री याद रह्वै”
हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ‚ पण मन में माँ री याद रह्वै”
पीथल के खिमता बादल री‚ जो रोकै सूर उगाली नै।
सिंहा री हाथल सह लेवै‚ वा कूंख मिली कद स्याली ने।
सिंहा री हाथल सह लेवै‚ वा कूंख मिली कद स्याली ने।
जद राणा रो संदेश गयो‚ पीथल री छाती दूणी ही।
हिंदवाणों सूरज चमके हो‚ अकबर री दुनियां सूनी ही।
हिंदवाणों सूरज चमके हो‚ अकबर री दुनियां सूनी ही।
∼ कन्हैया लाल सेठिया
पीथल और पाथल – कन्हैया लाल सेठिया
Reviewed by Dakhni
on
January 10, 2018
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